Friday, November 21, 2014

आख़िरी ख़त

किसी  खामोश रात में जब एक अनजाना सा भय;
कोई अनजानी सी सिहरन दे जाता है,

तो कही से उस  धुँधलाते चाँद में
तुम्हारा वही, प्यार भरा , मुस्कुरता चेहरा नज़र आ जाता है.……।
दूर, कुछ दूर , शायद बहुत दूर
अनवरत मुझसे होता दूर.....

कही कोई अदृश्य डोर सी हैं ,
जिसे तुमने जाने-अनजाने, अब तलक़ थाम  रखा है ;
और मैंने, शायद कस के जकड रखा है,
गोया की डोर छूटी, और.……

इस डोर को मैंने देखा है, जाना है , बहुत करीब से,
कोई ज़्यादा पुरानी बात नहीं;
किसी सर्द सुबह की धुप में,
जब तुमने एक प्याली चाय बनाई थी
और, मैंने एक सिगरेट सुलगाई थी।
हाँ, याद है तुम्हे, तुमने कहा था,
की तुम्हे सिगरेट का धुआं बहुत पसंद है,
उस धुऐ में तुम्हारी आँखे और भी नशीली  हो जाती थी,
और, धीमे से झुकती पलके न जाने कब चंचल हो जाती थी,
मैंने शायद एक तस्वीर भी ली थी तुम्हारी ...........

फिर तुमने हौले से छुआ था मुझे, की जैसे एक डोर बस बंध ……… सी गयी थी।
वह डोर हीथ्रो तक मेरे साथ थी,
उस खौफनाक तन्हाई में, रात दो बजे, मैंने तुम्हे ही तो पुकारा था.……
वह डोर तो इथिका में भी थी.……।

फिर न जाने,
कब वह ओझल सी हो गयी.…
कुछ ठीक से याद नहीं आता,
मै  नहीं जनता, वह जाने कहाँ  खो गयी.…… पर उस डोर के सहारे अक्सर तुम्हे ढूंढता हूँ।
न जाने कहाँ-कहाँ,
मेरी अपनी बेरुखी और रुस्वाई में,
इस सर्द रात के अनजाने अँधेरे में,
रिश्तो की खौफनाक भीड़ में........
सोचता हूँ की डोर है या  नहीं,
या
मैं खुद, महज़ तुम्हारा ख्याल तो नहीं ?

मैंने खुद को देखा था, तुम्हारी आँखों से,
अब भी सोचता हूँ की तुम चांदनी बनकर आ जाओ तो कुछ रौशनी हो जाये।

गर, धुँए  में तुम्हारा गुमां हो जाये,
तो जीने को चंद साँसे और मिल जाये













हो सके तो लौट आओ.…………………………………………।

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