अगर जीवन यूहीं रिश्तो की जलती चिता हैं
वादो और भावनाओ का मरघट हैं,
जिस पर क्रूर अट्टहास करता मनुष्य हैं -
तो आज मेरी समझ में आया की वैराग्य क्यों महान हैं।
अरमानो के उफनते ज्वार में,
देह की असीमित आंच में,
लावण्य और सौंदर्य के अनैतिक आग्रह में,
मर्यादाये लांघते, उन्माद के अंतिम छोर पर अग्रसर,
सुन्दर और कोमल चितवन,
क्या मात्र एक छलावा हैं ?
इच्छाओ के इस तप्त मरुस्थल से ,
कामना के सघन वन से ,
और , मोह के स्वच्छंद उन्माद से ,
निकालकर मैंने सिर्फ,
मृत्यु को पाया हैं।
मृत्यु जो अटल है,
अविनाशी हैं ,
जो स्वयं एक सौंदर्य की एक अप्रतिम रचना हैं।
एक वक़्त मैं समझ चला
की पिता का कठोर अनुशासन ही अटल सत्य है,
माता के अश्रुपूर्ण लोचन ही अंतिम लक्ष्य हैं ,
बहन की चिंता ही वृक्ष की घनी छाव हैं ,
की,
लीला के प्यारे नेत्रों में श्वास लेता ,
मेरा महान, अजर और अविनाशी जीवन हैं।
समय के आवेग में,
पिता कब ऋषि सामान कोमल हो गए ,
माँ कितनी शीग्र बूढ़ा गयी
बहन विवाह पश्चात् ससुराल चली गयी ,
और , लीला तुम,
तुम तो जैसे बिन बोले, बिन सुने ओझल सी हो गयी,
मेरे सामने खड़े सुन्दर और कोमल वक्षस्थल पाषाण हो गए ,
मैं रोता रहा, चिल्लाता रहा, पुकारता रहा ,
लेकिन,
तुम, तुम तो जा चुकी थी।
दूर , बहुत दूर ,
मुझे देख ही न पाती थी।
वादों के खँडहर में तुम्हे बहुत;
खोजा, पुकारा ,
और, खोजते-खोजते एक दिन रौशनी जाती रही,
पुकारते-पुकारते आवाज़ जाती रही।
कितना सुन्दर गाती थी तुम ,
सुरों के संगीत में, और
तुम्हारी गोद में ,
कितना कोमल था वह जीवन ,
गोया की, पेरिस की एक हसीं शाम हो ,
और, तुम लाल साड़ी में,
मेरे काँधे पे सर रखे, जीवन-पर्यन्त बैठी हो।
तुम्हारे जाने के बाद,
एक सघन मौन है,
मृत्यु का मौन।
मृत्यु,
जो की स्वयं एक कविता है,
तुम्हारी ही कोई लीला है,
की जैसे ,
पेरिस की एक हंसी शाम है ,
लाल साड़ी में, मेरे कंधे पर सर रखे
बैठी है जीवन-पर्यन्त, और जीवन के उस पार।
मृत्यु जो की एक कोमल वक्षस्थल है ,
देह की असीमित आंच में, मर्यादाएं लांघते चंचल चितवन हैं।
और,
ठगा-ठगा सा खड़ा,
एकमात्र दृष्टा और भोक्ता,
मैं हूँ या कोई परमात्मा हैं,
परमात्मा हैं , परमात्मा हैं।
वादो और भावनाओ का मरघट हैं,
जिस पर क्रूर अट्टहास करता मनुष्य हैं -
तो आज मेरी समझ में आया की वैराग्य क्यों महान हैं।
अरमानो के उफनते ज्वार में,
देह की असीमित आंच में,
लावण्य और सौंदर्य के अनैतिक आग्रह में,
मर्यादाये लांघते, उन्माद के अंतिम छोर पर अग्रसर,
सुन्दर और कोमल चितवन,
क्या मात्र एक छलावा हैं ?
इच्छाओ के इस तप्त मरुस्थल से ,
कामना के सघन वन से ,
और , मोह के स्वच्छंद उन्माद से ,
निकालकर मैंने सिर्फ,
मृत्यु को पाया हैं।
मृत्यु जो अटल है,
अविनाशी हैं ,
जो स्वयं एक सौंदर्य की एक अप्रतिम रचना हैं।
एक वक़्त मैं समझ चला
की पिता का कठोर अनुशासन ही अटल सत्य है,
माता के अश्रुपूर्ण लोचन ही अंतिम लक्ष्य हैं ,
बहन की चिंता ही वृक्ष की घनी छाव हैं ,
की,
लीला के प्यारे नेत्रों में श्वास लेता ,
मेरा महान, अजर और अविनाशी जीवन हैं।
समय के आवेग में,
पिता कब ऋषि सामान कोमल हो गए ,
माँ कितनी शीग्र बूढ़ा गयी
बहन विवाह पश्चात् ससुराल चली गयी ,
और , लीला तुम,
तुम तो जैसे बिन बोले, बिन सुने ओझल सी हो गयी,
मेरे सामने खड़े सुन्दर और कोमल वक्षस्थल पाषाण हो गए ,
मैं रोता रहा, चिल्लाता रहा, पुकारता रहा ,
लेकिन,
तुम, तुम तो जा चुकी थी।
दूर , बहुत दूर ,
मुझे देख ही न पाती थी।
वादों के खँडहर में तुम्हे बहुत;
खोजा, पुकारा ,
और, खोजते-खोजते एक दिन रौशनी जाती रही,
पुकारते-पुकारते आवाज़ जाती रही।
कितना सुन्दर गाती थी तुम ,
सुरों के संगीत में, और
तुम्हारी गोद में ,
कितना कोमल था वह जीवन ,
गोया की, पेरिस की एक हसीं शाम हो ,
और, तुम लाल साड़ी में,
मेरे काँधे पे सर रखे, जीवन-पर्यन्त बैठी हो।
तुम्हारे जाने के बाद,
एक सघन मौन है,
मृत्यु का मौन।
मृत्यु,
जो की स्वयं एक कविता है,
तुम्हारी ही कोई लीला है,
की जैसे ,
पेरिस की एक हंसी शाम है ,
लाल साड़ी में, मेरे कंधे पर सर रखे
बैठी है जीवन-पर्यन्त, और जीवन के उस पार।
मृत्यु जो की एक कोमल वक्षस्थल है ,
देह की असीमित आंच में, मर्यादाएं लांघते चंचल चितवन हैं।
और,
ठगा-ठगा सा खड़ा,
एकमात्र दृष्टा और भोक्ता,
मैं हूँ या कोई परमात्मा हैं,
परमात्मा हैं , परमात्मा हैं।
No comments:
Post a Comment